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पाठ – 5

भारतीय समाजशास्त्री

अनन्तकृष्ण अरूयर (1861 – 1937)

  • अनन्तकृष्ण अरूयर को 1902 में कोचीन के दीवान ने राज्य के नृजातीय सर्वेक्षण के लिए कहा क्योंकि ब्रिटिश सरकार सभी रजवाडों में नृजातीय सर्वेक्षण कराना चाहती थी ।
  • उन्होनें इस कार्य को स्वयंसेवी के रूप में पूर्ण किया । कोचीन रजवाडें की तरफ से उन्हे राय बहादुर तथा दीवान बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया ।
  • उन्हे Indian Science Congress के नृजातीय विभाग का अध्यक्ष चुना गया ।

शरदचन्द्र राय (1871 – 1942)

  • यह एक अग्रणी मानववैज्ञानिक थे । इन्होंने ईसाई मिशनरी विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक के रूप में कार्य किया ।
  • ये 44 वर्ष तक रांची रहे तथा छोटा नागपुर ( झारखण्ड ) में रहने वाली जनजातियों की संस्कृति तथा समाज के विशेषज्ञ बने ।
  • उन्होंने जनजातीयों क्षेत्रों का व्यापक भ्रमण किया तथा उनके बीच रहकर गहन क्षेत्रीय अध्ययन किया ।
  • उन्हे सरकारी दुमाषिए के रूप में रांची की अदालत में नियुक्त किया गया । उनके द्वारा ओराव मुंडा तथा रवरिया जनजातियों पर किया गया लेखन कार्य भी प्रकाशित हुआ ।

जी. एस धूर्य

  • जन्म : 12 दिसंबर 1893
  • स्थान : पश्चिमी भारत
  • 1913 में : बम्बई से स्नातक ( Graduation )
  • 1918 में : स्त्रनात्कोतर ( Post Graduation
  • 1919 में : समाजशास्त्र में छात्रवृति ( Scholarship )
  • लंदन के हॉबहॉउस : समाज शास्त्र अध्ययन की
  • 1922 में ” PHD उपाधि ग्रहण की ।
  • 1951 में : इंडियन सोशियोलॉजीकल सोसायटी की स्थापना
  • 30 से ज्यादा किताबें लिखी
  • 17 किताब सेवनिर्वित होने के बाद
  • 1983 में निधन हो गया

जाति तथा प्रजाति पर जी. एस धूर्य के विचार

  • हर्बर्ट रिजले के अनुसार मनुष्य का विभाजन उसकी शारीरिक विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए जैसे खोपड़ी की चौड़ाई , नाक की लम्बाई अथवा कपाल का भार आदि ।
  • यह मान्यता थी कि भारत विभिन्न प्रजातियों के अध्ययन की एक ‘ प्रयोगशाला ’ था क्योंकि जातीय अंतर्विवाह निषिद्ध था ।
  • सामान्य रूप से उच्च जातियाँ भारतीय प्रजाति की विशिष्टताओं से मिलती हैं ।
  • यह सुझाव दिया कि रिजले का तर्क व्यापक रूप से केवल उत्तरी भारत के लिए ही सही है । भारत के अन्य भागों में अंतर समूहों की विभिन्नताएँ व्यापक नहीं हैं ।
  • अतः ‘ प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर भारत में ही बची हुई थी क्योंकि वहाँ अंतर्विवाह निषिद्ध था । शेष भारत में अंतर्विवाह का प्रचलन उन वर्गों में हुआ जो प्रजातीय स्तर पर वैसे ही भिन्न थे ।

जाति की विशेषताएँ

  • खंडीय विभाजन पर आधारित समाज कई बंद पारस्पारिक अन्य खंडों में बँटा है ।
  • सोपनिक विभाजन पर आधारित :- प्रत्येक जाति दूसरी जाति की तुलना में असमान होती है । कोई भी दो जातियाँ समान नही होती ।
  • सामाजिक अंतःक्रिया पर प्रतिबंध लगाती है , विशेषाधिकार साथ बैठकर भोजन करने पर ।
  • भिन्न – भिन्न अधिकार तथा कर्तव्य निर्धारित होते है । जन्म पर आधारित तथा वंशानुगत होता है । श्रम विभाजन में कठोरता दिखाती है तथा विशिष्ट व्यवसाय कछ विशिष्ट जातियों को ही दिये जाते हैं ।
  • विवाह पर कठोर प्रतिबंध लगाती है । अंत विवाह के नियम पर बल दिया जाता है ।

परंपरा

परंपरा ‘ शब्द का मूल अर्थ : परंपरा की मजबूत जड़ें भूतकाल में होती हैं और उन्हें कहानियों तथा मिथकों द्वारा कहकर और सुनकर जीवित रखा जाता है ।

डी . पी . मुखर्जी के अनुसार :-

  • डी . पी . मुखर्जी का मानना था कि भारत की सामाजिक व्यवस्था ही उसका निर्णायक लक्षण है और इसलिए यह आवश्यक है कि सामाजिक परंपरा का अध्ययन हो ।
  • मुखर्जी का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था बल्कि वह परिवर्तन की संवेदनशील से भी जुड़ा हुआ था ।
  • तर्क दिया कि भारतीय संस्कृति व्यक्तिवादी नही है , इसकी दिशा समूह , संप्रदाय तथा जाति के क्रियाकलापों द्वारा निर्धारित होती है ।

जीवंत परंपरा :-

परंपरा जिसने अपने आपको भूतकाल से जोड़ने के साथ ही साथ वर्तमान के अनुरूप भी ढाला था और इस प्रकार समय के साथ अपने आपको विकसित करे ।

परिवर्तन

परिवर्तन के तीन सिद्धांत – श्रुति , स्मृति तथा अनुभव ( व्यक्तिगत अनुभव ) क्रांतिकारी सिद्धांत हैं । भारतीय समाज में परिवर्तन का सर्वप्रथम सिद्धांत सामान्यीकृत अनुभव अथवा सामूहिक अनुभव था ।

डी . पी . मुखर्जी के अनुसार :-

  • डी . पी . मुखर्जी के अनुसार भारतीय संदर्भ में बुद्धि विचार , परिवर्तन के लिए प्रभावशाली शक्ति नहीं है बल्कि अनुभव और प्रेम परिवर्तन के उत्कृष्ट कारक है ।
  • संघर्ष तथा विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं । परंपरा का लचीलापन इसका ध्यान रखता है कि संघर्ष का दबाव परंपराओं को बिना तोड़े उनमें परिवर्तन लाए ।

राज्य पर . आर . देसाई के विचार

कल्याणकारी राज्य की विशेषताएँ :-

  • कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है ।
  • कल्याणकारी राज्य केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता जो कानून तथा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक होते है ।
  • यह हस्तक्षेपीय राज्य होता है और समाज की बेहतरी के लिए सामाजिक नीतियों को लागू करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है ।
  • यह एक लोकतांत्रिक राज्य होता है ।
  • लोकतंत्र की एक अनिवार्य दशा होती है ।
  • औपचारिक लोकतांत्रिक संस्थाओं बहुपार्टी चुनाव विशेषता समझी जाती है ।
  • इसकी अर्थव्यवस्था मिश्रित है ।
  • मिश्रित अर्थव्यवस्था ऐसी अर्थव्यवस्था है जहाँ निजी पूँजीवादी कंपनियाँ तथा राज्य दोनों साथ – साथ काम करती हैं ।
  • कल्याणकारी राज्य न तो पूँजीवादी बाजार को खत्म करता है और न ही यह जनता को निवेश करने से रोकता है ।

कल्याणकारी राज्य के कार्य परीक्षण के आधार :-

  • यह गरीबी , सामाजिक भेदभाव से मुक्ति तथा अपने सभी नागरिकों की सुरक्षा का ध्यान रखता है ।
  • यह आय सम्बन्धी असमानताओं को दूर करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाता है ।
  • अर्थव्यवस्था को इस प्रकार से परिवर्तित करता है जहाँ पूँजीवादियों की अधिक से अधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति पर रोक लगाता है ।
  • स्थायी विकास के लिए आर्थिक मंदी तथा तेजी से मुक्त व्यवस्था का ध्यान रखा जाता है ।
  • सबके लिए रोजगार उपलब्ध कराता है ।

कल्याणकारी राज्य के आधार

  • अधिकांश आधुनिक पूँजीवादी राज्य अपने नागरीकों को निम्नतम आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा देने में असफल रहे हैं ।
  • आर्थिक असमानताओं को कम करने में सफल नहीं हो पायें हैं ।
  • बाजार के उतार – चढ़ाव से मुक्त स्थायी विकास करने में असफल रहे हैं ।
  • अतिरिक्त धन की उपस्थिति तथ अत्याधिक बेरोजगारी इसकी कुछ अन्य असफलताएँ हैं ।

एम . एन . श्रीनिवास के गाँव संबंधी विचार

एम . एन . श्रीनिवास के लेख :-

  • गाँव पर श्रीनिवास द्वारा लिखे गए लेख मुख्यतः दो प्रकार के है ।
  • सर्वप्रथम , गाँवों में किए गए क्षेत्रीय कार्यो का नृजातीय ब्यौरा ।
  • द्वितीय , भारतीय गाँव का सामाजिक विश्लेषण , ऐतिहासिक तथा अवधारणात्मक परिचर्चाएँ ।

गाँव पर लुई ड्यूमां का दृष्टिकोण

  • उनका मानना था कि गाँव को एक श्रेणी के रूप में महत्व देना गुमराह करने वाला हो सकता है ।
  • लुई का मानना था कि जाति जैसी संस्थाएँ गाँव की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण होती है ।
  • उनका मानना था कि लोग गाँव को छोड़कर दूसरे गाँव को जा सकते हैं , लेकिन उनकों सामाजिक संस्थाएँ सदैव उनके साथ रहती हैं ।

गाँव का महत्व

  • गाँव ग्रामीण शोधकार्यों के स्थल के रूप में भारतीय समाजशास्त्र को लाभान्वित करते हैं ।
  • इसने नृजातिय शोधकार्य की पद्धति के महत्व से परिचित कराने का मौका दिया ।
  • सामाजिक परिवर्तन के बारे में आँखों देखी जानकारी दी ।
  • भारत के आंतरिक हिस्सों में क्या हो रहा था , पूर्ण जानकारी दी ।
  • अतः यह कहा जा सकता है कि गाँव के अध्ययन से ही संपूर्ण भारत का विकास हुआ तथा समाजशास्त्रियों को कार्य क्षेत्र मिला ।

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